जातिगत जनगणना: सामाजिक न्याय की दिशा में बड़ा कदम

केंद्र सरकार ने जब से आम जनगणना के साथ जातिगत जनगणना की घोषणा की है, तब से देश में एक नई बहस छिड़ गई है। खासकर पसमांदा मुसलमानों को ओबीसी में शामिल करने का फैसला न सिर्फ सामाजिक न्याय की दिशा में केंद्र सरकार का बड़ा कदम है, बल्कि यह भारत की जनसांख्यिकी को समझने और पिछड़े तबकों को मुख्यधारा में लाने का अवसर भी देगा।

जातिगत जनगणना से पता चलेगा कि देश में कौन-सी जातियां कितनी हैं और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्या है। खास तौर पर पसमांदा मुसलमान, जो मुस्लिम आबादी का करीब 80% हिस्सा हैं, शिक्षा, नौकरी और संसाधनों से वंचित हैं। बिहार की 2023 की जनगणना ने दिखाया कि 73% मुसलमान पसमांदा हैं, जो अन्य समुदायों की तुलना में पिछड़े हुए हैं।

जातिगत जनगणना के इन आंकड़ों से सरकार को सही नीतियां बनाने में मदद मिलेगी। यह सिर्फ मुसलमानों की बात नहीं, बल्कि सभी ओबीसी समुदायों के लिए फायदेमंद होगा। 2030 तक भारत की आबादी 150 करोड़ तक पहुंच सकती है, लेकिन अगर तब तक सटीक आंकड़े उपलब्ध न हों, तो नीतियां बनाना मुश्किल हो जाएगा। अब आम जनगणना के साथ जातिगत जनगणना होने से यह काम आसान हो जाएगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार पसमांदा मुसलमानों के विकास की बात की है। यूपी, बिहार और बंगाल में 4-5 करोड़ पसमांदा वोटर हैं। बीजेपी ने 2023 के यूपी निकाय चुनावों में 61 पसमांदा उम्मीदवारों को जिताकर अपनी मंशा साफ कर दी है कि वह पसमांदा मुसलमानों का विकास चाहती है।

हालांकि, बीजेपी के इस कदम को उनकी मुस्लिम-विरोधी छवि को नरम करने की कोशिश के रूप में भी देखा जा रहा है। विपक्ष इसे बीजेपी की चुनावी चाल बता रहा है। कांग्रेस, सपा और जदयू जैसे दल केंद्र सरकार के इस फैसले को अपनी जीत बता रहे हैं। नीतीश कुमार और अखिलेश यादव ने इसका स्वागत तो किया, लेकिन इसे अपनी ओबीसी राजनीति से जोड़ना नहीं भूले।

कुछ विचारक ये भी मान रहे हैं कि जातिगत जनगणना से सामाजिक तनाव बढ़ने का डर है। खासकर मुस्लिम समुदाय में ये अशराफ और पसमांदा के बीच टकराव की वजह बन सकता है। इसके अलावा, आंकड़ों को जुटाने और उनका विश्लेषण करने में 2-3 साल लग सकते हैं, जिससे नीतियां लागू होने में देरी हो सकती है। अगर सरकार ने इन आंकड़ों का सही इस्तेमाल नहीं किया, तो यह सिर्फ सियासी हथियार बनकर रह जाएगा।

कुल मिलाकर, जातिगत जनगणना देश के लिए एक मौका है कि वह अपने सामाजिक ढांचे को बेहतर करे। पसमांदा मुसलमानों को उनकी हक की हिस्सेदारी मिले, इसके लिए सरकार को पारदर्शी और तेजी से काम करना होगा। राजनीतिक नजरिए से अलग हटकर अगर यह फैसला सही दिशा में लागू हुआ, तो भारत न सिर्फ सामाजिक न्याय की राह पर बढ़ेगा, बल्कि आर्थिक और सामाजिक समानता की मिसाल भी बनेगा।

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